अपना नेता चुन नहीं पा रहे, उम्मीदें लोगों से कर रहे कि वह उन्हें चुन लें!


खान अशु
चौदह बरस का वनवास काट चुके हैं, हालात यही रहे तो आगे भी पैवेलियन में बैठे तालियों ही ठोकते रहेंगे! वजह छिपी नहीं है, सरेआम है, सबकी अपनी महत्वाकांक्षाएं! एक राजा, तो दूसरा महाराजा, एक उचा तो दूसरा उससे भी कद्दावर! सबको ऊपर जाना है, सबको आगे, सबको गद्दी चाहिए और सबको राज करना है! कोशिशों को अन्जाम देने एक-दूसरे को नीचे दिखाने की इन्तेहा यह है कि दसों नेता मिलकर अपने लिए एक सर्वमान्य अगुआ ही नहीं चुन पा रहे हैं। भोपाल से दिल्ली तक दौड़ लग रही हैं लेकिन नतीजा बाबाजी का ठुल्लु। 'सबका साथ सबका विकास' का दावा करने वालों पर तन्ज कसने वाले खुद ही आदिवासी को पीछे धकेलने, मुस्लिमों को दरकिनार करने, ठाकुरों को तरजीह देने और ब्राह्मणों को आगे बढ़ाने का ओछाई दिखाने में कोताही नहीं कर रहे हैं। खुद के लिए अपने बीच से, अपनी ही पार्टी के एक नेता को चुन नहीं पा रहे हैं और उम्मीदें यह लगा रखी हैं कि प्रदेश की जनता उन्हें चुनकर अपना अगुआ बनाए!

पुछल्ला
घेराव विधानसभा का या अपने लोगों का?
एक दिन बाद मप्र विधानसभा घेराव की तैयारी। बतौर-ए-खास जिन नेताओं की आमद होने की उम्मीद लगाई जा रही है, उनका एकसाथ आना ही इस पार्टी के लिए प्रदेश जीत लेने जैसा है। दसों फिरको में बँटे कांग्रेसियों ने घेराव को लेकर जो पोस्टरबाजी राजधानीभर में की है, उसे देख यह लग रहा है कि प्रदर्शन प्रदेश की विभिन्न समस्याओं ओर सियासी मुद्दों को लेकर नहीं बल्कि एक दूसरे के खिलाफ शक्ति दिखाई का हो।

एक और पुछल्ला
यह दमन की सियासत है सरकार!
प्रदर्शन करने वालों पर लाठियों की बारिश, भरी सभा विपक्ष के नेताओं को बोलने से रोका-रोकी ओर अब घेराव से पहले होने वाली सभा की अनुमति निरस्त कर देना, दस शर्तें आयद करना, यह तो लोकतंत्र व्यवस्था को मुह चिढाने जैसा है सरकार, इतनी बहराहट तो ठीक नहीं!

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