अब अदालतों में उठने लगे मारपीट के ठेके
कुमार सौवीर
लखनऊ : आपको भले ही यह कोर्ट-कचेहरी का नितान्त निजी-विधि सम्बन्धी मामला दिखे, लेकिन सच यह है कि कोर्ट परिसरों में अब तेजी से आ चुकी वकीलों की गुण्डागर्दी का किताब, विधि, तथ्य, तर्क, बहस, विश्लेषण और संयम से कोई लेना-देना नहीं है। वह साफ-साफ अराजक व्यवस्था, धन के तेजी से बढ़ते आर्थिक धुरियों पर तेजी से बढ़ते चंद वकीलों को ललचाई नजरों से उस इमारतों को बाहुबल से पिछाड़ने की उन लोगों की दबंग कवायद ही है, जो येन-केन-प्रकारेण अपना आधिपत्य जमा देना चाहते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यह हालत अब नियंत्रण के बाहर तो है ही, लगातार तेजी से बिगड़ती भी जा रही है।
इस हालत को समझने के लिए एकाध मोटी-मोटी बात ही पर्याप्त होगी। कहने की जरूरत नहीं कि अभी कोई बीस-पचीस साल पहले तक मेरिट वाले वकीलों की ही तूती बोलती थी, मगर बहुत जल्दी ही न्याय-देवी के मंदिर से आंचल सरकना शुरू हो गया। दिलचस्प बात तो यह है कि इसके पहले तक मेधा-यानी भेजा की श्रेष्ठता के बल पर सब कुछ हासिल कर पाने वाले बड़े वकीलों को अब महज अपने बाहुबल के बल पर सब कुछ को तहस-नहस कर देने वाले सद्यस्तनपायी यानी नवजात वकीलों ने धूल चटा रखा है। सच कहूं तो कोई भी बड़े नामचीन वकील भी कचहरी में घुसते ही कांख मारते हैं। ऐसे बड़े वकीलों ने अपने चैम्बर में किताबों को काफी खिसका कर अब ऐसे जूनियरों को सजा लिया है, जो वक्त-बे-वक्त उनके काम आ सकें।
और तथ्य और तर्क से दूर वकीलों की एक नयी जमात जब अदालतों वाले न्याय-मंदिरों में अपनी घुसपैठ बना गयी, तो अदालतों का चेहरा ही बदल गया। अदालतों में गुण्डागर्दी तो बहुत बाद में आयी, पहले तो दलाली के धंधे ने कचेहरी के दरवाजे पर कुण्डी खटखटाना शुरू कर रखा था। लेकिन यह सब कुछ बहुत खुला-खुला नहीं था। जानकार बताते हैं कि छोटी कचहरियों तो दूर, हाईकोर्ट के लखनऊ और इलाहाबाद तक में वकीलों ने वादी-गणों को लूटने-चूसने के लिए तमाम जुगत भिड़ा रखी थीं। वकालत की पेंचीदगियों से बिलकुल अलग इन तरीकों ने अपनी फीस के साथ ही साथ झूठ और तमाम तिकड़मों का सहारा लेना शुरू कर दिया था।
लेकिन इसके बावजूद यह बातचीत या तिकड़मों की चर्चाएं केवल न्याय-परिसरों, वकील समुदाय और बहुत हुआ तो वकीलों के मित्रों तक ही सीमित होकर रह जाती थीं। मुअक्किल को इसकी भनक तक नहीं मिल पाती थी। आखिर घर का ही मामला है, यह सोच कर ही लोग उसे हजम कर लेते थे। कौन खुद की टांगों को घुटने से ऊपर करने की जहमत उठाये।
करीब बीस साल हो चुके हैं, अदालतों का चेहरा विद्रूप होता जा रहा है। जहां शांत माहौल में सवाल-जवाब हुआ करता था, अब वहीं पर हो-हल्लड़, शोर, और गालियां ही नहीं, बाकायदा मारपीट और खून-खच्चर तक होना आम बात होती जा रही है। अदालतों का मतलब बहुआयामी यानी मल्टी-डायमेंशनल सेटिंग-गेटिंग का सुरक्षित स्थान हो गया । जहां बातें तय की जाती हैं, और अगर जरूरत पड़े तो किसी भी शख्स को तोड़ करने का मुफीद मौका वाला सेफ स्थान दिया जाता है, लेकिन हमलावर के लिए।
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