दर्द जनता का, तडप मुनाफ़ाखोरो की!


खान अशु
मोरार जी देसाई की सरकार में जब शकर 2 ₹ किलो हुआ करती थी, इस्तेमाल करने वाले खरीदी में सोच-विचार नहीं किया करते थे, अब मोदी जी के युग में 40 की शकर भी जरूरत को नहीं डिगा पाई है... कार से लेकर पेट्रोल तक की कीमतों में भी इजाफा दर इजाफा हुआ, आम इंसान की जरूरत की हर चीज़ के हालात भी कमोबेश यही हैं, लेकिन इस्तेमाल करने वाले कम होने की बजाए लगातार बढ़ते ही गए...
व्यापार बढ़ा, व्यापारी भी बढ़े... इतने बढ़े कि सरकारें बनाने और गिराने की ताकत पा गए... मानसूनी महीने के आखिरी दिन 30 जून को जिस कुनबे ने देश बन्द का ऐलान किया है, वह वही व्यापारी जमात है, जिसे उस पार्टी का संबल माना जाता है, जो वर्तमान में देश की अगुआ बनी हुई है। जिद और जबरदस्ती उस कानून को लेकर है, जो सरकार कल रात घण्टा बजाकर लागू करने वाली है। नए कानून से व्यापारी-कारोबारी इसलिए कम प्रभावित माना जाना चाहिए कि वह हमेशा से अपने मुनाफे के साथ ही धन्धा करता आया है, जिस लागत पर बनाया या जिस दाम पर खरीदा, उसमें फायदे का तडका लगाकर ही बेचता रहा है, फिर यह छटपटाहट क्यों?
नए कानून को लेकर सही मायने में किसी को नाराज होना चाहिए तो वह देश के सवा अरब ग्राहक हैं, जो हर खरीद खुद को ठगा सा महसूस करेगा, एक ही चीज़ के लिए अलग-अलग तरीकों से गैर वाजिब मुनाफे रूपी टैक्स की अदायगी करके। लेकिन भोले, मासूम और हर बात को जल्दी भुला देने वाले भारतवासियों को शायद इस बात का अहसास भी नहीं होता कि उनकी उन्गलियो की जुम्बिश के दम पर 'सरकार' बन जाने वाले उनके ही हित को दरकिनार कर उनके पूज्यवर बने बैठे हैं।


देखो दीवानों तुम ये काम न करो...
सरकार उपवास कर चुके, उनके मुखालिफ लोगों ने सत्याग्रह कर लिया, अब नई-नकोर सियासत को भी गांधी सिद्धांतों ने आकर्षित किया है। 27 और 72 घण्टे की पिछली नौटंकी के मुकाबले 24 घण्टों की चेतावनी हडताल करने वालों का मानना है कि सरकार क्रूर है और मासूम (?) किसानों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लाकर प्रदेश की अवाम पर दमनपूर्ण कार्रवाई कर रही है। वैसे जमी-थमी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने की बजाए इन्हें कोई मशविरा दे कि विरोधी गतिविधियों से बचकर कुछ सकारात्मक काम कर ले तो इस पार्टी को अगले चुनाव कुछ नामलेवा मिल जाएंगे।

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