बेरोजगार हुए हजारों पत्रकार अब सोशल मीडिया पर उगलेंगे आग


नावेद शिकोह
लखनऊ : एक जून को डीएवीपी की वेबसाइट से 45 हजार से ज्यादा वाले 95 प्रतिशत अखबार उड़ा दिये गये। बताया जा रहा है कि दबाब में इन अखबारो ने अपनी प्रसार संख्या लगभग तीन गुना घटा दी है। तीस जून के बाद कम प्रसार वाली विज्ञापन दरो के साथ इन अखबारो के नाम फिर से डीएवीपी की वैबसाइट पर चढ़ सकते है। लेकिन सवाल इस बात का है कि जो प्रकाशक आफिस-स्टाफ और रंगीन छंपाई का खर्च सिर्फ सरकारी विज्ञापनो से ही निकाल पाते थे क्या अब इतनी कम दरो और इतने कम विज्ञापनो के बूते पर अखबार का प्रकाशक जारी रखा पायेगे? मुझे तो लगता है कि अब 95फीसदी अखबारो के शटर गिरने की आवाजे बहुत जल्द सुनायी देने वाली है।


तारीखो की शिल्पकारी वाली इस पोस्ट पर कई प्रतिक्रिया आयी। मीडिया पर इस तरह के रुख को लेकर लोगो का विरोध सामने आया। लेकिन कुछ सैकेंड लाइन के न्यूज चैनल्स और अखबारो के पत्रकारो ने इस फैसलो पर खुशी जाहिर की। उनका कहना था कि मीडिया के इस फर्जीवाड़े की सफाई होना सराहनीय कदम है। इन बेचारो को शायद ये नही पता था कि इस सफाई अभियान मे वो खुद भी साफ हो रहे हैं।


इस बात मे कोई शक नही कि दस-बीस ब्रांड अखबारो के अलावा ज्यादातर अखबार 30 से तीस सौ कापी ही छापते हैं। यानी कुल डीएवीपी मान्यता प्राप्त अखबारो मे पांच प्रतिशत ब्रांड अखबार ( दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, टाइम्स आफ इन्डिया जैसे बीस-तीस) छोड़ दीजिये तो सब अखबार 20-30 फाइल कापी छापने वालो के बड़े भाई ही है। भले ही इनका प्रसार 70-72 हजार एप्रूव हो, लेकिन ये चार-पांच सौ से लेकर दो तीन हजार तक ही अखबार छाप पाते है। कुछ ऐसा ही हाल न्यूज चैनलो का भी है। आजतक, इन्डिया टीवी, एबीपी न्यूज, न्यूज 18, जी न्यूज, एनडीटीवी, टाइम्स नाऊ जैसे दस-बीस ब्रान्ड न्यूज चैनलो के अलावा ज्यादातर न्यूज चैनलो की टीआरपी फाइल काफी और उनकी बड़े भाईयो वाले अखबारो की रीडरशिप जैसी ही है। यानी ना के बराबर/बहुत ही कम या दावे के 2-4 प्रतिशत भी नही।

ये बात भी कोई नही झुठला सकता कि सक्रिय पत्रकारो की कुल जमात मे सिर्फ पांच प्रतिशत पत्रकार ही ब्रान्ड मीडिया समूहो वाले/ अधिक रीडरशिप/टीआरपी वाले है। बाकी 95% पत्रकारो का रोजगार सैकेंड लाइन के दर्जनो न्यूज चैनलो/मझौले-छोटे अखबारो से जुडा है। ये सब चैनल/अखबार संघर्षशील और कम संसाधनो वाले है। छोटे-मोटे धनपशु ही छोटे चैनलो/अखबारो को चला रहे है। आमतौर से इन पब्लिकेशन/प्रोडक्शन के कुल खर्च की आधे से ज्यादा भरपाई सरकारी विज्ञापन से ही होती है। और कुछ खर्च मालिको की जेब से होता है। इसके अलावा इन्हे कामर्शियल विज्ञापन ना के बराबर ही मिलता है।

ऐसे मे नई  विज्ञापन नीति लागू होने से  मध्यम/छोटे अखबारो/चैनलो के मालिक निश्चित तौर पर अपने-अपने मीडिया ग्रुपस का शटर गिरा लेंगे। ऐसे मे 95% पत्रकार/मीडिया कर्मी आखिर कहां जायेंगे ?

छोटे मीडिया ग्रुप को लेकर जो रुख सामने आ रहा है उसका। कारण सिर्फ़ एक है। केवल बड़े मीडिया समूहो (अंबानी-अडानी जैसो के ) के बीस-तीस अखबार/चैनलो को ही सरकार असली मीडिया मानेगी। और इनकी ही मान्यता और विज्ञापन ही बर्करार रहेगा। आजतक/एबीपी/न्यूज 18/ इन्डिया टीवी, जी न्यूज जैसे 8-10 न्यूज चैनल्स और जागरण/ अमर उजाला/हिन्दुस्तान/ टाइम्स आफ इन्डिया जिसे 8-10 अखबार ही सरकारी विज्ञापन और मान्यता का लाभ ले सकेगे। बाकी तीस से तीस सौ कापी छापने वाले अपना वास्तविक प्रसार दिखाकर अखबार/चैनल तो चला सकते है लेकिन इस प्रसार से उनके हिस्से मे सरकारी विज्ञापन लगभग ना के बराबर ही मिलेगा।

इस तरह बड़े न्यूज चैनलो/अखबारो के अलावा सैकेंड लाइन के चैनल्स और अखबार के मालिक अपने-अपने मीडिया ग्रुप बंद कर देगे। ऐसे मे इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट के लाखो पत्रकार/कर्मचारी बेरोजगार होकर सोशल मीडिया पर आग मूतेंगे। क्योकि आजतक और जागरण जैसे देश के लगभग दो दर्जन समूह तो इन लाखो मीडिया कर्मियो को रोजगार देने वाला नही। मजीठिया के डर से सहम कर ये बडे मीडिया समूह पहले से जमे अपने स्टाफ को ही बाहर का रास्ता दिखा है।  गिरती विकास दरो /मंदी की हाहाकार मे व्यवसायिक विज्ञापन पचास फीसद कम हो गये है। बड़े मीडिया समूहो के पत्रकारो की नौकरी के स्थायित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। बाकी पत्रकार बिरादरी के बहुसंख्यक यानी 95%पेशेवर मौजूदा सरकारो की विज्ञापन नीति से पैदल होने जा रहे है।


काश देश मे एक भी पत्रकारो का संगठन होता तो वो सरकारी विज्ञापन नीति बनाने वालो को ये सब समझाता। और ये भी बताता कि सरकारी विज्ञापन का दूसरा मकसद संघर्षशील/कम संसाधन वाली  मीडिया को अप्रत्यक्ष रूप से इमदाद/सहयोग/सब्सिडी/सहायता/डोनेशन देना भी होता है। और इसका हक पूंजीपतियो/धंन्नासेठो के मीडिया समूह को नही है। दूसरी चीज ये है कि कम प्रसार वाले अखबारो का ज्यादा प्रसार किसने एप्रूव किया ? सरकार को सबसिडी के तौर पर कम प्रसार वाले अखबारो को विज्ञापन की सहायता देने की कोई नीति बनाना चाहिए है।

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