खतरे में भारत का लोकतंत्र ?


‘एक ऐसी सरकार जो ‘सबका विकास’ के वादे पर सरकार में आई थी, अब समाज के सबसे कमज़ोर लोगों को सुरक्षा देने को लेकर अनिच्छुक नज़र आ रही है.’
प्रेम शंकर झा
जिस समय मैं यह लिख रहा हूं, देश एक बार फिर 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी सरकार द्वारा भारत पर लगाए गए आपातकाल (इमरजेंसी) को याद कर रहा है, जिसे 21 महीने बाद 21 जून, 1977 हटा दिया गया था. हममें से उन लोगों ने जिन्होंने उन दो वर्षों के दौरान सेंसरशिप, सार्वजनिक बहसों के लगभग ख़ात्मे और एक मद्धम से मगर हर जगह छाए डर के माहौल को महसूस किया है, वे कभी भी इतिहास के इस अध्याय को नहीं भुला पाएंगे.

जब देश पर आपातकाल लगाया गया था उस समय आज के भारत की तीन चौथाई आबादी का जन्म भी नहीं हुआ था और आज के हर दस में से 9 भारतीय इतने बड़े नहीं थे कि उस समय हो रही चीज़ों के परिणामों का अंदाज़ा लगा पाते. इसलिए इतने साल बीत जाने के बाद लोगों की चेतना पर आपातकाल के निशान धुंधला गए हैं और इसे याद किया जाना एक रस्मअदायगी बन गया है.

आज की सामान्य समझ ये है कि आपातकाल एक व्यक्ति के सनक की सीमा तक पहुंचे अहंकार का नतीजा था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनावों में धांधली करने का दोषी क़रार दिया था. क़ानून के आदेश के अनुसार उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना होता और संसद से बाहर निकलना पड़ता, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. वे आपातकाल हटाने पर भी तब मजबूर हुईं, जब उन्होंने महसूस किया कि उनकी अपनी ही पार्टी आपातकाल को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ाते जाने के पक्ष में नहीं थी.

इस वाकये ने लंबे समय में इस यक़ीन को जन्म दिया है कि आपातकाल ने एक अच्छा काम यह किया कि इसने लोगों को अपनी लोकतांत्रिक आज़ादी के महत्व को समझाया और आनेवाली सरकारों को यह सबक देकर गया कि भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे हुए देश में अनिश्चितकाल के लिए तानाशाही शासन चलाना नामुमकिन है. इसलिए यह बात थोड़ी विरोधाभासी लगेगी, मगर एक तरह से इंदिरा गांधी ने भारत के लोकतंत्र को हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया.

लेकिन, इस आराम देने वाले यक़ीन की बुनियाद बालू पर पड़ी है. बीतते समय के साथ ऐसे दस्तावेज़ और संस्मरण सामने आए हैं, जो ये बताते हैं कि इंदिरा गांधी की मंशा कभी भी आपातकाल को स्थायी तौर पर बनाए रखने की नहीं थी.

इसके साथ ही वक़्त के गुज़रने के साथ वे ज़्यादातर सबक भुला दिए गए हैं, जिन्हें देश ने उस अनुभव से सीखा था. आज हम एक बार फिर अपने लोकतंत्र को लेकर लापरवाह ढंग से निश्चिंत हो गए हैं. लेकिन, सुरक्षित होने की बात तो दूर, यह एक बार फिर ख़तरे में है और यह पहले के किसी भी ख़तरे से अलहदा है. लेकिन ऐसा लगता है कि कोई भी इस ख़तरे से वाक़िफ़ नहीं है.

यह सही है कि इलाहाबाद हाईकोई का फ़ैसला आपातकाल का कारण बना, मगर इस वजह से नहीं कि इसने इंदिरा गांधी के शासन पर तत्काल कोई ख़तरा पैदा कर दिया था. हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद उन्हें तुरंत अपनी कुर्सी छोड़ने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस कृष्ण अय्यर ने उन्हें संसद में शक्ति परीक्षण के बग़ैर तब तक प्रधानमंत्री के तौर पर काम करने की इजाज़त दे दी थी, जब तक उनके द्वारा की गई अपील की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच (संपूर्ण पीठ) द्वारा नहीं हो जाती. सुप्रीम कोर्ट की यह फुल बेंच गर्मियों की छुट्टी के बाद बैठनेवाली थी.

हक़ीक़त यह है कि इंदिरा गांधी को देश में आपातकाल लगाने की सलाह बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने एक चिट्ठी लिखकर 8 जनवरी, 1975 को दी थी. यानी इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के छह महीने पहले. रे ने इस आधार पर यह सिफ़ारिश की थी कि देश में फैल रही अराजकता और देशभर में शासन को चरमराने से रोकने के लिए यह ज़रूरी हो गया था.

एक साल पहले आउटलुक पत्रिका में छपे एक लेख में रे पर यह आरोप लगाया गया था कि जब उन्होंने यह सलाह दी, तब देश में कोई संकट नहीं था. लेकिन ये बात हक़ीक़त से परे है.

रे ने यह सलाह तत्कालीन रेलमंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या के सिर्फ़ पांच दिनों बाद दी थी. मिश्रा की हत्या बिहार में एक जनसभा के दौरान डायस के नीचे बम रखकर की गई थी. एक ऐसी पीढ़ी को जो टेलीविज़न और कंप्यूटर के परदों पर डरावनी सार्वजनिक हत्याओं और बमबारियों को देखने की अभ्यस्त हो गई है, यह कोई बड़ी घटना नहीं लगेगी.

लेकिन ये वे दिन थे, जब लीला ख़ालिद ने आकाश में पहले हवाईजहाज़ को हाइजैक नहीं किया था और सिर्फ़ दो पुलिस जवान 1, सफदरजंग रोड, जो श्रीमती इंदिरा गांधी का आवास था, की सुरक्षा में तैनात होते थे. इसलिए मिश्रा की मौत से सरकार को लगने वाले धक्के को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए.

आपातकाल की घोषणा की पृष्ठभूमि

यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मिश्रा पर हुआ हमला देश के तत्कालीन माहौल में चिंताजनक संकेत दे रहा था. हमले की यह घटना 13 महीनों से देश में चल रहे आंदोलनों के बाद हुई थी, जिनकी शुरुआत दिसंबर, 1973 में गुजरात के कांग्रेसी मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के ख़िलाफ़ छात्रों के बग़ावत से हुई थी. इस बग़ावत को इस यक़ीन ने जन्म दिया था कि सूखे और कठिनाई के दौर में पटेल ने अपने परिवार और मित्रों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए खाने के तेल की क़ीमतों में गड़बड़ी की है.

श्रीमती गांधी ने पहले तो चिमनभाइ पटेल का इस्तीफ़ा दिलवाकर और राष्ट्रपति शासन लगाकर विधानसभा को स्थगित करके, छात्रों को शांत करने की कोशिश की. लेकिन, यह क़दम एक बड़ी रणनीतिक चूक साबित हुआ. इस फ़ैसले को इंदिरा गांधी की कमज़ोरी समझकर पूरा विपक्ष, जिसमें कम्युनिस्ट से लेकर जनसंघ और कांग्रेस (ओ) तक, छात्रों के आंदोलन में शामिल हो गया और उसने गुजरात विधानसभा को भंग करके फिर से चुनाव कराने की मांग रखी.

जब इस मांग के समर्थन में मोरारजी देसाई अनशन पर बैठ गए, तब 168 सदस्यों वाली विधानसभा में 148 सीट होने के बावजूद इंदिरा गांधी दूसरी बार झुक गईं और उन्होंने मार्च, 1974 में विधानसभा को भंग कर दिया.

यह उनकी दूसरी ग़लती साबित हुई. इसने विपक्ष के हौसलों को और बढ़ा दिया और जो आंदोलन शिकायतों की वैध अभिव्यक्ति के तौर पर शुरू हुआ था, वह बल प्रयोग के द्वारा सत्ता परिवर्तन की अवैध कोशिश में तब्दील हो गया.

कुछ दिनों के भीतर ही यह आंदोलन बिहार में फैल गया. जून, 1974 तक यह कर्नाटक, यूपी और पंजाब में फैल चुका था. उस समय इंदिरा गांधी के मुख्य सचिव पीएन धर के शब्दों में, ‘किसी ने भी क़ानून के शासन के ख़ात्मे और सरकार बदलने के संवैधानिक तरीक़े को नकारने पर आंसू का एक क़तरा तक नहीं बहाया.’

कभी पंडित नेहरू और उनके परिवार के क़रीबी सहयोगी रहे बुजुर्ग समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने अशांति को बढ़ावा देने में जो भूमिका निभाई, उससे इंदिरा गांधी ख़ासतौर पर और कुपित हुईं.

जेपी ने फरवरी, 1974 में गुजरात का दौरा किया था और वहां नवनिर्माण आंदोलन से प्रभावित हुए थे. जब अप्रैल, 1974 में नए बने संगठन, बिहार राष्ट्रीय संघर्ष समिति ने उनसे अप्रैल, 1974 में संपर्क किया, तो वे झट से ख़ुशी-ख़ुशी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार हो गए.

धर के मुताबिक एलएन मिश्रा की हत्या ने श्रीमती गांधी के इस संदेह को और मज़बूत करने का काम किया कि उनकी सरकार को गिराए जाने की साज़िश रची जा रही है. उनका यह शक तब यक़ीन में बदल गया, जब दो आनंदमार्गियों ने (2014 में जिनकी सारी अपीलें ख़त्म हो गईं) ने मुख्य न्यायाधीश एएन रे, (जिन्हें श्रीमती गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में उनसे तीन वरिष्ठ जजों के ऊपर वरीयता देते हुए मुख्य न्यायाधीश बनाया था) की हत्या करने की कोशिश की. लेकिन, इस घटना के बाद भी इंदिरा गांधी को यह नहीं लगा कि देश में आपातकाल लगाने की ज़रूरत है.

दो और झटकों ने उनको अपना मन बदलने की वजह दी. पहला झटका 12 जून को गुजरात विधानसभा चुनावों में विपक्ष की अप्रत्याशित जीत के तौर पर लगा. दूसरा, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने जनता से तब तक सरकार से असहयोग करने और उसे कर अदा करने से इनकार करने का आह्वान किया, जब तक इंदिरा गांधी सत्ता छोड़ नहीं देतीं.

इन दो घटनाओं ने इंदिरा गांधी को यह यक़ीन दिला दिया कि पूरे देश में एक क़िस्म का जनोन्माद फैल रहा है और क़ानून और तय प्रक्रिया का पालन करने की विपक्ष की कोई मंशा नहीं है. न ही विपक्ष उनकी अपील पर सुनवाई पूरी होने तक उन्हें सरकार के मुखिया के तौर पर काम करने देने को ही तैयार है.

इस बात के पक्ष में स्पष्ट सबूत हैं कि इंदिरा गांधी की कभी भी आपातकाल को स्थायी तौर पर लगाए रखने की मंशा नहीं थी. स्वर्गीय केसी पंत ने 1980 के दशक के अंत में मुझसे कहा था कि 25 जून, 1975 की कैबिनेट बैठक के बाद उन्होंने बग़ैर किसी लाग-लपेट के उनसे (इंदिरा से) पूछा था कि क्या आपातकाल अस्थायी होगा? इस पर इंदिरा गांधी का जवाब था- ऑफ कोर्स (बिल्कुल). इस जवाब में थोडा सा चिड़चिड़ापन इस भाव का मिला हुआ था कि वे ऐसा संदेह कैसे कर सकते हैं.

पीएन धर ने अपने संस्मरण में इसका ज़िक्र किया है कि 1976 के अंत के महीनों में, इंदिरा गांधी को ये पता था कि बंसीलाल और वीसी शुक्ला जैसे चाटुकारों से घिरे संजय गांधी जनवरी, 1977 के आगे भी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाने के पक्ष में थे. लेकिन, उन्हें नहीं लगता था कि यह समझदारी भरा क़दम होगा. इसलिए उन्होंने धर को इस विषय पर एक नोट तैयार करने के लिए कहा था.

इस नोट में धर ने जल्दी चुनाव कराने की सलाह दी थी क्योंकि आपातकाल से हुआ फ़ायदा समाप्त हो गया था और घाटा बढ़ने लगा था. धर ने तब यह महसूस किया कि वे चुनाव, चुनाव की व्यवस्था और संवैधानिक सुधारों को लेकर की जानेवाली चर्चाओं से संजय को अलग रख रही हैं. इसलिए जब उन्होंने 18 जनवरी को आपातकाल हटाने और मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की, तो धर समेत उनके इर्द-गिर्द के सारे लोग जिनमें संजय भी थे, पूरी तरह से चकित रह गए.

धर को यह पता था कि उस समय तक ‘एजेंसियों ने यह बात बता दी थी कि अगर चुनाव होते हैं, तो वे हार जाएंगी. लेकिन धर का निष्कर्ष है कि इंदिरा गांधी ने यह फ़ैसला इसलिए लिया क्योंकि वे दूसरे रास्ते को कहीं बदतर समझती थीं.

तब और अब

इसके ठीक उलट, नरेंद्र मोदी सरकार देश को बेहद सोच समझ कर सधे हुए हाथों से एक ऐसे आपातकाल की ओर ले जा रही है, जिसकी मिसालें इतिहास में मिलती तो हैं, लेकिन वे ख़ुशी देनेवाली नहीं हैं. सत्ता में आने के बाद अपने शुरुआती भाषणों में मोदी ने आनेवाले दस सालों के लिए अपनी योजनाओं को इस तरह से पेश किया, जैसे प्रधानमंत्री या सरकार में बदलाव की कोई गुंज़ाइश ही नहीं है. उसके बाद से उनके कई मंत्री और उनके पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने भी ऐसे ही बयान दिए हैं.

ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपने कामकाज को रूपांतरकारी मानते हैं. यह काम है, भारतीय, ख़ासकर हिंदू मानस में पहले कमज़ोरी की भावना जगाना, जिसके कारण भारत को सदियों की ‘ग़ुलामी’ झेलनी पड़ी, और एक ताक़तवर, ताल ठोंकने वाला हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना, जो ताक़त और भय जगाने के कारण दुनिया में सम्मान की निगाहों से देखा जाएगा. ऐसे कायापलट में समय लगेगा.

ख़ुद को अपने पहले वाले के शासकों, जो उनकी नज़रों में कमज़ोर घुटनों वाले, छद्म राष्ट्रवादी हैं, और उनके पश्चिम में पढ़े-लिखे सलाहकारों के समूह से अलग दिखाने के लिए इस सरकार ने देश को कश्मीर की निहत्थी जनता के ख़िलाफ़ डर के अभियान मे झोंक दिया है.

इससे पहले इसने नेपाल पर एक अघोषित व्यापारिक नाकेबंदी इस वजह से कर दी थी कि नेपाल ने अपने संविधान के निर्माण में मोदी की सलाह को नजरंदाज़ करने की ग़ुस्ताख़ी की थी. इसने नेपाल को चीन की बांहों में धकेल दिया.

इस सरकार ने पाकिस्तान के साथ पहले से ही तनावपूर्ण रिश्तों को और बदतर बना दिया है और मनमोहन सिंह सरकार ने चीन के साथ शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एक नयी अंतरराष्ट्रीय विश्व व्यवस्था के निर्माण के लिए सहयोग बढ़ाने के नाम पर सीमा-विवादों को पीछे छोड़ देने में जो सफलता हासिल की थी, उसे भी इस सरकार ने गंवा दिया है.

लेकिन ये सारे सोचे-समझे उकसावे भाजपा द्वारा देश के भीतर क़ानून के शासन पर किये जा रहे सुनियोजित हमले के सामने कहीं नहीं ठहरते.

इसके सबसे शुरुआती उदाहरणों में से एक था, एक छेड़छाड़ किए गए वीडियो के द्वारा जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को तथाकथित तौर पर ‘पाकिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए और जेएनयू कैंपस में भाजपा की छात्र इकाई- अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उलझते हुए दिखाना और इसका इस्तेमाल उन्हें गिरफ़्तार करने और जेल भेजने के लिए करना. हालांकि, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाना अपराध नहीं है और दो टीवी चैनलों ने यह उजागर किया कि इन टेपों के साथ छेड़छाड़ की गई है, फिर भी सरकार ने कुमार को तीन हफ़्ते तक जेल में रखा.

जब वे जेल में थे, तब आरएसएस की छांव में पलने वाले संगठनों में से एक- अधिवक़्ता संघ से ताल्लुक रखने वाले तीन वकीलों ने पुलिस की मौजूदगी में कन्हैया कुमार की पिटाई की. इंडिया टुडे के स्टिंग ऑपरेशन में ये वकील अपने इस कारनामे की डींग हांकते देखे गए. लेकिन पुलिस ने बदले में बस इन्हें थाने में आने की दावत दी, उनके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की और उन्हें तुरंत बेल पर रिहा कर दिया.

संघ परिवार से ताल्लुक रखने वाले एक और छद्म संगठन- भारतीय गोरक्षा दल की छतरी तले सैकड़ों गोपरहरेदार नमूदार हो गए हैं. इन्होंने अनगिनत मुसलमानों, दलितों, ट्रक चलाने वालों और मवेशी का व्यापार करने वालों पर हमले किए हैं और कम से कम दस लोगों की हत्या कर दी है. मारे जाने वालों में छह मुसलमान हैं.

दक्षिण एशिया के ह्यूमन राइट्स वॉच की डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली ने कहा, ‘गाय के नाम पर मुस्लिमों और दलितों की पीट-पीटकर हत्या किए जाने पर भाजपा नेताओं की तरफ़ से कोई सख़्त बयान नहीं आने से यह संदेश गया है कि भाजपा इस हिंसा का समर्थन करती है. एक ऐसी सरकार जो ‘सबका विकास’ के वादे पर सरकार में आई थी, अब समाज के सबसे कमज़ोर लोगों को सुरक्षा देने को लेकर अनिच्छुक नज़र आ रही है.’

भारतीय गोरक्षा दल का दावा है कि इससे 50 संगठन जुड़े हुए हैं और इसके पास 10,000 स्वयंसेवकों की सेना है. लेकिन देशभर में दूसरे स्वयंभू गोरक्षा समूह पनप गए हैं. दिल्ली में ही ऐसे 200 समूहों के कार्यरत होने का अनुमान है. गुजरात के ऊना क्षेत्र में भी इतने गोरक्षा समूहों के होने का अनुमान है.

1 जुलाई, 2016 को 35 गोरक्षकों ने एक गाय की खाल उतारने के अपराध में सात दलितों पर हमला किया. इस गाय को गिर के जंगल के पास के एक गांव में शेर ने मार दिया था. इन गोरक्षकों ने दलितों पर गोवध का आरोप लगाया और लोहे के डंडों और सरियों से उनकी पिटाई की.

इनमें से चार का अपहरण करके उन्हें ऊना लेकर आया गया, जहां एक कार में बांध कर शहर भर में सार्वजनिक तौर पर उनकी बेंत से पिटाई की गई. हिंसा करने वालों ने इस पिटाई का वीडियो बनाया, दलितों के चिल्लाने की आवाज़ को एक कर्णप्रिय पश्चिमी संगीत से बदल दिया और इस टेप को यू-ट्यूब पर डाल दिया. सात दलित अस्पताल मे भर्ती कराए गए, मगर पुलिस मूकदर्शक बनी रही.


पिछले कुछ समय में जहां तहां लोगों को पीटकर मारने की घटनाएं आम हुई हैं.

भारतीय गोरक्षा संघ और अधिवक़्ता संघ आरएसएस द्वारा बनाई गई लड़ाकू सेना का बस एक छोटा सा हिस्सा है. इसका तीसरा हिस्सा गोरखपुर की हिंदू युवा वाहिनी है, जो ख़ुद को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को समर्पित एक प्रचंड सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन कहती है.

हिंदू युवा वाहिनी की स्थापना मुस्लिमों से नफ़रत करने वाले भाजपा के फायरब्रांड नेता और अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने की थी. यह संगठन कई दंगों में शामिल रहा है, जिसमें 2005 में मऊ में हुआ दंगा उल्लेखनीय है. मुख्यमंत्री बनने के बाद आदित्यनाथ ने अपनी पहली कार्रवाई- अवैध बूचड़खानों (उनके ओर उनकी वाहिनी के शब्दों में) को बंद कराने में, पुलिस की मदद करने के लिए वाहिनी को बुलाया.

आदित्यनाथ और हिंदू युवा वाहिनी ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’ अभियानों के मुख्य जांचकर्ता रहे हैं. इन दोनों अभियानों का मक़सद नई सरकार में मुस्लिमों को उनकी हैसियत बताना था, जिसका अंजाम कई मुस्लिमों पर हमले और कई मौतों के तौर पर सामने आया. लेकिन फिर भी मोदी सरकार के पिछले तीन साल में इक्का-दुक्का ही गिरफ़्तारियां हुई हैं. त्वरित जमानत और सज़ा न दिया जाना ही यहां की रिवायत है. पुलिस और जजों ने भी अपनी तरफ़दारी तय कर ली है.

विरोधियों की बांहें मरोड़ना

लेकिन, यह सब भी आरएसएस और भाजपा द्वारा लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के भीषण अपमान के सामने कहीं नहीं ठहरता. 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल के हाथों पूरी तरह से धूल चटा दिए जाने के बाद मोदी ने आप पर जिस स्तर का हमला किया, उसके लिए किसी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं हो सकती.

यह हमला तीन चरणों में किया गया. पहले चरण में सारी ताकत सरकार को पंगु बनाने में खर्च की गई. उपराज्यपाल नजीब जंग को मोहरा बना कर उसने एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) को दिल्ली सरकार के हाथों से छीन लिया और उस हेल्पलाइन नंबर को बंद कर दिया जिस पर एसीबी को जनता से पुलिस और तीन नगर निगमों के अधिकारियों द्वारा रंगदारी वसूलने की 160,000 शिकायतें मिली थीं.

इसके बाद गृह मंत्रालय ने एक सर्कुलर निकाल कर उन विषयों पर भी जिनका पुलिस या ज़मीन से कोई लेना-देना नहीं था राज्य सरकार के हाथ से लगभग सारी अहम शक्तियां छीन लीं. ये दो मामले केंद्र के लिए आरक्षित हैं.

हमले का दूसरा चरण दिल्ली हाईकोर्ट की एक एकल पीठ के एक असाधारण फ़ैसले के साथ शुरू हुआ, जिसने भारतीय संविधान के एक नहीं दो अनुच्छेदों- अनुच्छेद 293 और अनुच्छेद 293ए को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया और दिल्ली को (और इसके नतीजे के तौर पर पांडिचेरी को भी) पूरी तरह से फिर से केंद्र के अंगूठे के नीचे ला दिया.

इसके बाद जंग ने 400 फाइलें ज़ब्त कर लीं और वैसी छोटी से छोटी चीज़, जिसे ‘अनियमित’ कहा जा सकता था, सीबीआई को जांच के लिए भेज दी गई. इसके बाद टीआरपी के भूखे टीवी चैनलों की सहायता से राई जैसे मामलों पर आरोपों का पहाड़ खड़ा किया गया और अख़बारों के पाले हुए पत्रकारों की मदद से सरकार को बदनाम करने और यह धारणा बनाने की कोशिश की गई कि ‘आप’ किसी से बेहतर नहीं है, बल्कि शायद दूसरों से भी गई-गुज़री है.

मोदी ने इस हमले का तीसरा चरण अरविंद केजरीवाल और उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पर भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और पैसे की हेराफेरी के अरोपों के नाम पर सीधा हमला करके शुरू कर दिया. यह सब पार्टी को तोड़ने और केजरीवाल सरकार को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर करने की पूर्वपीठिका तैयार करने के लिए किया गया.

इस मक़सद को अंजाम देने के लिए आप के दो सदस्यों कुमार विश्वास और ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन’ के उफान के दिनों में आरएसएस से आए और इस तरह आरएसएस को इस आंदोलन से जोड़कर रखने वाले कपिल मिश्रा को मोहरा बनाया गया.

इस हमले का ब्योरा देना काफ़ी थकाने वाला काम होगा, इसलिए यहां इतना ही कहना काफ़ी होगा कि मिश्रा ने यह आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी आंखों से केजरीवाल को केजरीवाल के ही घर पर एक ख़ास तारीख़ को स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन से 2 करोड़ का विदेशी डोनेशन लेते हुए देखा.

सीएम आवास के आसपास लगे सीसीटीवी कैमरों से इस आरोप की पुष्टि नहीं हो पाई, फिर भी दिल्ली पुलिस ने दिल्ली के चुने हुए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ कम से कम 29 मामले दर्ज कर दिए.

केजरीवाल विपक्ष के इकलौते नेता नहीं हैं, जिनके ख़िलाफ़ मोदी और अमित शाह ने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है. भाजपा देश के लोकतंत्र के लिए कितनी ख़़तरनाक है यह पहचानने वाली देश की पहली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के मंत्री भी कई महीनों से सीबीआई, आयकर अधिकारियों और इंफोर्समेंट डायरक्टरेट (प्रवर्तन निदेशालय) के निशाने पर हैं. वे (भाजपा-संघ परिवार) जितनी चीज़ें कर रहे हैं, उनमें एक साझा सूत्र है क़ानून का अनादर और शासन और उन तमाम परंपराओं के प्रति पूर्ण अवमानना का भाव जिन पर लोकतंत्र टिका है.

मोदी और शाह ये जानते हैं कि आज वे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ जो कर रहे हैं, वही उनके प्रतिद्वंद्वी भी सत्ता में आने के बाद उनके साथ कर सकते हैं, बल्कि करेंगे. मध्य प्रदेश में व्यापमं घोटाला, राजस्थान में ज़मीन घोटाला जैसे घोटालों की सूची देखते हुए विपक्ष के पास हाथ साफ़ करने के लिए मौक़ों की कमी नहीं होगी. तो फिर वे इस बात से इतने बेफ़िक्र कैसे हैं कि यही सब पलटकर उनके साथ भी हो सकता है? उन तमाम लोगों के लिए जो आगे देखने का साहस रखते हैं, जवाब उनके सामने है: उन्हें (भाजपा) यह भरोसा है कि विपक्ष कभी सत्ता में नहीं आएगा. ऐसा तभी हो सकता है, जब भारत से लोकतंत्र को उखाड़ फेंका जाए.

इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल तवे पर पड़े पानी की बूंद की तरह क्षणिक था, असली आपातकाल सबका इंतज़ार कर रहा है. साभार द वायर

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