प्रेस की आज़ादी की चर्चा क्यों नहीं होती?


दशकों से उत्तर-पूर्व और कश्मीर के मीडिया संस्थान अपनी आज़ादी की लड़ाई राष्ट्रीय मीडिया के समर्थन के बगैर लड़ रहे हैं.
प्रबोध जामवाल
बीते दिनों सीबीआई द्वारा एनडीटीवी के मालिकों के यहां पड़े छापों के बाद वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी का प्रेस की आज़ादी को बचाने और मीडिया से एकजुट होने की बात कहना लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की बिगड़ती स्थिति की ओर ध्यान दिलाता है.

शौरी ने 9 जून को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एनडीटीवी और इसके प्रमोटरों के साथ हुए शोषण के विरोध में हुए कार्यक्रम में कहा कि इस घटना ने लगभग 4 दशक बाद पूरे मीडिया को साथ लाकर खड़ा कर दिया है. वे ग़लत नहीं हैं. लेकिन मीडिया को साथ लाने के लिए उठ रही इन आवाज़ों के बीच सवाल करने की ज़रूरत है कि इस आवाज़ को उठने में देर क्यों हुई और क्या वाकई में इस एकजुटता में ‘पूरा’ मीडिया शामिल भी है?

आपातकाल से लेकर अब तक क्षेत्रीय, छोटे और हाशिये के मीडिया संस्थानों ने केंद्र व राज्यों की बदलती हुई सरकारों के शोषण का सामना किया है. पर दुर्भाग्य है कि ‘राष्ट्रीय’ मीडिया, जिसे अब वर्तमान सरकार की मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशों का सामना करना पड़ा है, इतने सालों से मीडिया के शोषित हो रहे अपेक्षाकृत छोटे हिस्सों को चुप कराए जाने की कोशिशों पर ख़ामोश रहा.

1980, 1990 और 21वीं सदी के पहले दशक में कई छोटे मीडिया संस्थानों को बंद होने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि उन्होंने सत्ता (भले ही केंद्र और राज्य में किसी भी दल की सरकार रही हो) के इशारों पर चलने से मना कर दिया. गुजरात में जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के दफ्तर और प्रिंटिंग प्रेस पर हमले किए गए थे क्योंकि वे सरकारी योजनाओं की आलोचना और दंगे करवाने में पुलिस की भागीदारी के बारे में लिख रहे थे.

1970, 80 और 90 के दशक में राज्य सरकार की आलोचना करने के चलते आनंद बाज़ार पत्रिका, अमृत बाज़ार पत्रिका और स्टेट्समैन  पर लगातार हमले हुआ करते थे. प्रेस इंस्टीट्यूट में पत्रकारों और अख़बार के दफ्तरों पर हुए इन हमलों को बखूबी दर्ज किया गया है.

यहां तक कि छोटी से छोटी आलोचना, विकास नीतियों की कमियां बताना, उनके अमल में बरती जा रही लापरवाही या किसी लोकतांत्रिक संस्थान को पहुंचाए जा रहे नुकसान के विरोध में आवाज़ उठाने का नतीजा न केवल अख़बार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों या प्रमोटरों के ख़िलाफ़ साजिशें होतीं बल्कि उनके आय के स्रोतों पर भी शिकंजा कस दिया जाता.

आयकर विभाग के अलावा पुलिस या किसी अन्य क़ानूनी संस्था से छापे पड़वाना अगला कदम होता, जिसके बाद मीडिया मालिकों और प्रमोटरों को सबक सिखाने के मकसद से उन पर मुकदमा दर्ज करवाया जाता.

तो अब क्या फर्क़ आया है? बस यह कि अब बड़े, प्रभावी मीडिया संस्थानों को भी इस तरह के तरीकों का सामना करना पड़ रहा है. पहले सत्ताधारियों का संदेश होता था, ‘या तो आप (मीडिया) हमारे साथ है या हमारे ख़िलाफ़.’ अब नया फॉर्मूला है, ‘या तो आप हमारे साथ है या आप देशद्रोही हैं.’ और इस हथियार को विश्वसनीय पत्रकारों की आलोचना से बचने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

प्रेस क्लब में हुए इस कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने कहा कि हर पीढ़ी को आज़ादी का पाठ पढ़ाया जाता है. आज की तारीख में सरकार के रुख को देखते हुए नैयर साहब की बात बेहद प्रासंगिक हो जाती है. पर सबसे बड़ा सवाल है कि इसका मुक़ाबला कैसे किया जाए. सुझाव दिया गया कि एकजुट हुआ जाए, साथ ही मीडिया के सभी हिस्सेदारों को साथ लाया जाए.

लेकिन जहां एक ओर मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा है, जो अपनी मर्ज़ी से टीआरपी और ऐसे ही कुछ हितों के चलते ख़ुद को सत्ताधारियों के हाथ की कठपुतली बने रहने देना चाहता है, वहीं जो उनके ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत कर रहे हैं, उनकी एकता भी ज़्यादा मज़बूत नहीं है.

मीडिया की एकता पर तब तक इस तरह सवाल उठते रहेंगे जब तक इसमें छोटे मीडिया प्रतिष्ठान, जिनमें छत्तीसगढ़, उत्तर पूर्व, झारखंड और जम्मू कश्मीर जैसे अशांत क्षेत्रों के मीडिया भी शामिल हों, की आवाज़ शामिल नहीं होती.

मिसाल के तौर पर कश्मीर का मीडिया 1989 में आतंकवाद की शुरुआत के बाद से ही बेहद मुश्किल और ख़तरनाक परिस्थितयों में काम कर रहा है. हमने खुले तौर पर मीडिया संस्थानों, उसके प्रमोटरों और ख़ासकर पत्रकारों पर दबाव बनते और उनका शोषण होते हुए देखा है. यहां मीडियाकर्मी अक्सर ही अन्य संगठनों के अलावा केंद्र और राज्य सरकारों के निशाने पर रहते हैं.

पिछले 28 सालों के दौरान कई बार यहां अख़बारों को अपना प्रकाशन बंद करना पड़ा क्योंकि जो वे छाप रहे थे, वो उस वक़्त की सरकार को पसंद नहीं था. दुर्भाग्य यही है कि देश के मुख्यधारा के मीडिया ने कश्मीर या किसी भी अशांत क्षेत्र के मीडिया की प्रेस की आज़ादी का समर्थन नहीं किया. देश के ज़्यादातर मीडिया संस्थानों ने या तो शासन का साथ दिया या फिर चुप्पी साधे रखी.

प्रेस क्लब के इसी आयोजन में अरुण शौरी ने राजस्थान पत्रिका के साथ हुए शोषण का ज़िक्र किया, जहां उनके सूचना और आय के स्रोतों को अवरुद्ध कर दिया गया था. लेकिन उन्होंने भी अशांत क्षेत्रों में लंबे समय से मीडिया को चुप करवाने के प्रयासों पर कुछ नहीं कहा. यह भी दुखद है कि सरकार द्वारा जम्मू कश्मीर की प्रेस पर लगाए जाने वाले स्थायी या अस्थायी बंद या सरकारी मशीनरी द्वारा पत्रकारों, मीडिया के तकनीकी स्टाफ को मिलने वाली धमकियों या उनके साथ होने वाली शारीरिक हिंसा पर उस दिन प्रेस क्लब में कोई बात नहीं हुई.

एक ऐसे अख़बार, जो लगातार सरकार की मीडिया से बेरुखी का खामियाजा भुगतता रहा है, का संपादक होने के नाते मैं जम्मू कश्मीर में छोटे मीडिया संस्थानों की ख़ुद को बचाए रखने के लिए की जा रही एकाकी लड़ाइयों के बारे में प्रमाणिक तौर पर बात कर सकता हूं. कई और प्रकाशन और मीडिया संस्थान भी हैं, जिन्हें इसी तरह निशाना बनाया गया है.

कश्मीर टाइम्स समूह (और इसके चार प्रकाशन) कुछ अन्य अख़बारों के साथ करीब सात साल पहले केंद्र सरकार के निशाने पर आ गए थे. 2010 की गर्मियों में कश्मीर में बढ़े तनाव के बाद केंद्र सरकार ने कश्मीर टाइम्स  को किसी भी तरह का विज्ञापन जारी करने पर रोक लगा दी थी. ऐसा 6 सालों में दूसरी बार हुआ था.

इससे पहले ऐसा अक्टूबर 2004 में हुआ था, जब कश्मीर टाइम्स ने साउथ एशियन फ्री मीडिया एसोसिएशन के कार्यक्रम के तहत पाकिस्तानी पत्रकारों के यहां के दौरे की ज़िम्मेदारी ली थी. सरकार ने हमारे किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया. हमारे पास सिर्फ एक मौखिक संदेश पहुंचा कि गृह मंत्रालय ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को सभी आधिकारिक विज्ञापन रोकने का आदेश दिया है.

जनवरी 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद ये विज्ञापन दोबारा मिलने शुरू हुए. इसके बाद 2010 में यूपीए-2 के समय प्रधानमंत्री का हस्तक्षेप भी काम नहीं आया. उस समय तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम कश्मीर के मीडिया को सबक सिखाने पर अड़े थे. प्रधानमंत्री कार्यालय के दखल पर हुई एक मीटिंग में उन्होंने मुझसे यह बात ख़ुद कही थी. तब जम्मू कश्मीर से इकलौते मंत्री ग़ुलाम नबी आज़ाद ने भी गृह मंत्रालय के इस कदम का समर्थन किया था.

यहां इससे पहले 9 जून 2002 को कश्मीर टाइम्स  के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख इफ्तिख़ार गिलानी की गिरफ़्तारी का ज़िक्र करना भी ज़रूरी ही जाता है, क्योंकि इसका मकसद ही अख़बार को सबक सिखाना था. सात महीने की क़ैद के बाद गिलानी को रिहा तो कर दिया गया पर आयकर विभाग द्वारा उनके ख़िलाफ़ दायर किए गए मुक़दमे अब भी लंबित हैं. 2002 में हुई इकलौती अच्छी बात यह थी कि युवा पत्रकारों ने केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के इतर विरोध प्रदर्शन भी किए थे.

कश्मीर टाइम्स  के साथ जम्मू कश्मीर के लगभग आधा दर्ज़न और अख़बारों के विज्ञापनों पर रोक लगाने के बाद आय के बाकी स्रोत भी बंद करने के उद्देश्य से निजी विज्ञापनदाताओं पर भी दबाव बनाया गया. इसके अलावा, अखबारों पर आयकर और आपराधिक मुक़दमे दायर किए गए, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया ने कभी जम्मू कश्मीर के इन अख़बारों की तरफ से कोई आवाज़ नहीं उठाई.

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (जिसके प्रमुख उस वक़्त जस्टिस मार्कंडेय काटजू थे) भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को नोटिस जारी करने के अलावा कोई मदद नहीं कर सका. हमारे पहली शिकायत दर्ज करवाने के 6 साल बाद भी काउंसिल की तरफ से कोई कदम नहीं उठाया गया है. प्रेस काउंसिल यानी वो संस्था जिसे देश के मीडिया संस्थानों के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए, हमें उससे भी कोई मदद नहीं मिली.

यह मामला उस संघर्ष का महज़ एक उदाहरण है, जिससे मीडिया का एक धड़ा लंबे समय से अकेले जूझ रहा है.

ऐसी परिस्थिति में, मीडिया पर पड़ रहे दबाव के समय एक साथ खड़े होने की बात करने के बहुत मायने हैं. पर अगर यह एकजुटता ‘विशिष्ट’ बनी रहेगी, इसमें सब शामिल नहीं होंगे, तो यह केवल दोहरे मापदंड रखने वाली बात होगी. प्रेस क्लब में हुई यह बैठक उम्मीद तो जगाती है पर यह समझना भी ज़रूरी है कि प्रेस की आज़ादी के मूल्यों को बनाए रखने की इस लड़ाई में क्षेत्रीय और हाशिये पर काम कर रहे मीडियाकर्मियों को लाना भी आवश्यक है. साभार द वायर

(प्रबोध जामवाल जम्मू कश्मीर से निकलने वाले कश्मीर टाइम्स और इसके सभी प्रकाशनों के प्रमुख संपादक हैं.)

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