देश को बहुत महंगी पड़ी ‘मोदी की नोटबंदी’


नोटबंदी फिर से चर्चा में है और यह कोई शुभ समाचार नहीं है। इससे लेन-देन के समूचे आकार में कमी आए, आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित होंई; दुष्प्रभाव काफी लंबे समय तक जारी रहेंगे और 2017-18 की प्रथम तिमाही तथा शायद उससे भी अधिक समय तक अर्थव्यवस्था में व्यवधान पैदा होगा। अब समय आ गया है कि नोटबंदी जिन लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकी और जो कुछ इसने किया है और जो प्रभाव अभी तक जारी हैं उनका लेखा-जोखा किया जाए।

सर्वप्रथम तो नोटबंदी से काले धन का प्रवाह रुका नहीं है और न ही काली कमाई बाधित हुई है। चूंकि नोटबंदी ने इन समस्याओं को संबोधित ही नहीं किया इसलिए यह माना जा सकता है कि इसका इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। परिणाम यह हुआ कि जनवरी 2017 के बाद सब कुछ पहले की तरह चलने लगा। दूसरी बात यह हुई कि इसने करंसी की जालसाजी भी नहीं रोकी। भारतीय रिजर्व बैंक अभी भी उस पैसे की गिनती कर रहा है जो नोटबंदी दौरान बैंकों में आया था इसलिए जाली नोटों के संबंध में किसी प्रकार के आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन अंदाजा लगाया गया है कि जाली नोटों की प्रतिशत बहुत ही मामूली है।

कुछ भी हो, जाली करंसी तैयार करने वाले फिर से अपना अड्डा जमा कर बैठ गए हैं। इसकी एक ही व्याख्या हो सकती है कि आतंकवाद का वित्त पोषण करने वाले जाली नोटों के कारोबार का गला घोंटने का लक्ष्य हासिल नहीं हो पाया है। नोटबंदी का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य था कि नकदी के रूप में जमा की गई काली दौलत को नकारा बना दिया जाए। इस प्रकार की काली करंसी के स्वामी इसकी घोषणा नहीं कर पाएंगे और फलस्वरूप उनके कागज के नोट व्यर्थ बनकर रह जाएंगे। सरकार ने यह उम्मीद लगाई थी कि काले धन का बहुत बड़ा हिस्सा बैंकिंग प्रणाली में वापस नहीं लौटेगा। सरकार की यह उम्मीद भी फलवती नहीं हो पाई।

9 जून, 2017 को आर.बी.आई. द्वारा जारी साप्ताहिक आंकड़ा परिशिष्ट में रिपोर्ट दी गई: 8 नवम्बर 2016 को 17.9 लाख करोड़ रुपए की करंसी परिचालन में थी जो 2 जून, 2017 को घटकर 14.3 लाख करोड़ रह गई। इसी अवधि दौरान आर.बी.आई. के पास बैंकों के कुल जमा खातों की राशि तथा बाजार स्थिरीकरण योजना (एम.एस.एस.) के अंतर्गत राशि क्रमश: 2.31 लाख करोड़ और 0.947 लाख करोड़ थी। यानी कि बंद किए जा चुके नोटों की कुल जमा राशि 3.25 लाख करोड़ थी। अब थोड़ा गणित लड़ाएं: 14.7 लाख करोड़ में 3.25 लाख करोड़ जमा करें तो हमें 2 जून, 2017 पर कुल 17.95 लाख करोड़ का आंकड़ा हासिल होता है जोकि 8 नवम्बर, 2016 के दिन 17.9 लाख करोड़ था। यानी कि बंद किए गए लगभग सभी के सभी नोट बैंकिंग तंत्र में लौट आए थे। इसका सीधा-सा तार्किक अर्थ यह है कि नोटबंदी अपने सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य में ही असफल हो गई थी।

तो फिर यह सवाल पूछा जाना अटल है कि नोटबंदी ने आखिर हासिल क्या किया है? जैसा कि अधिकतर अर्थशास्त्रियों ने पूर्वाभास किया था, बिल्कुल वैसा ही हुआ और लेन-देन का आकार बहुत कम हो गया व आर्थिक गतिविधियों पर बुरा प्रभाव पड़ा। नकद लेन-देन पर अधिक निर्भर करने वाले कुछ क्षेत्रों में तो बहुत अधिक व्यवधान आया। आंकड़ा एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने हाल ही में सरकारी आंकड़े जारी किए हैं जो कि स्पष्ट तौर पर दिखाते हैं कि जी.डी.पी. की वाॢषक वृद्धि दर में सुस्ती आई है। वैसे सकल मूल्यांकन में वृद्धि हुई है लेकिन इसकी तुलना में वृद्धि की दर में आई सुस्ती अधिक उल्लेखनीय है। यहां तक कि 2016-17 की आखिरी तिमाही में वृद्धि दर का संकुचन 2015-16 की इसी अवधि की तुलना में 3 प्रतिशत तक पहुंच गया था।

इस मंत्रालय ने यह भी पुष्टि की कि भवन निर्माण क्षेत्र का काम तो एक तरह से धराशायी ही हो गया। कारखाना क्षेत्र में भी बहुत सुस्ती देखने को मिली। सार्वजनिक प्रबंधन को छोड़कर अन्य सभी सेवा क्षेत्रों में भी मंदी आ गई। आखिरी तिमाही में जी.डी.पी. में प्राइवेट खपत पर होने वाला खर्च भी घट गया। सकल अचल पूंजी निर्माण के मामले में भी यह बात सच है। यानी नोटबंदी ने खपत में कमी पैदा की जिसके कारण नए निवेश की मांग कम हो गई। कृषि क्षेत्र की यह व्यथा देश भर में देखने को मिल रही है और इसी के कारण एक के बाद एक राज्य सरकारों द्वारा ऋण माफी दी जा रही है। वैसे अभी तक यह स्पष्ट नहीं कि ऋण माफी देने वाले राज्य अपने इस प्रयास का वित्तीय बोझ झेलने की क्षमता रखते हैं या नहीं।

ऋण माफियों का संभावी अर्थ यह है कि सार्वजनिक निवेश में कटौती करनी पड़ेगी। वैसे ऋण माफी कोई एक दिन में पूरी नहीं हो जाती। सामान्यत: यह एक वर्ष या इससे भी अधिक समय ले सकती है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में मांग वृद्धि तत्काल बहाल नहीं हो सकती। इसके चलते आर.बी.आई. को अपनी मौद्रिक नीति में निश्चय ही बदलाव करने पड़ेंगे। समूचे तौर पर देखा जाए तो मोदी की नोटबंदी हमें बहुत महंगी पड़ी है लेकिन शायद इतने मात्र से सरकार का मन नहीं भरा और अब जी.एस.टी. से संबंधित नए जोखिम मंडराने लगे हैं। वित्त मंत्रालय को डिजीटल और कैश-लैस इंडिया की बजाय अन्य गंभीर मुद्दों की चिंता करनी चाहिए।

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